कवि कर्कश काग
कहे कवि कर्कश स्वर में , कागा मेरो साथी है,
ना सुर उसमें ना सुर मुझमें , हमें एक बनाती है ||
जो जन को मैं जानवाउ, बीती अपनी उन्हें सुनाऊं,
काग जान मोहे टारे है , कर्कश कह के पुकारे हैं ||
बुरी दशा अपने मन की हस हस जो मैं सुनाऊं,
कह दूं जो उनके मन की कोकिल मैं कहलाऊं ||
पर बदलूं कैसे सच्चाई को ,काग को मैं साथी हूँ ,
उजाड़ू जड़ चेतन मन सबके , ऐसी चलती आंधी हूँ ||
मीठे बोल मैं बोलूं सबसे , जान सत्य ना मीठा है,
कोकिल ऐसी दशा मेरी , काग साथ मैंने छोड़ा है ||
मानव हूँ मैं मानव चाहूं , कहने को बातें मन की,
बना मोहे कोकिल अपने सो, दृष्टि छीनू मैं जन
की||
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